देहरादून, 16 अक्टूबर: गढ़वाली लेखक और प्रसिद्ध अभिनेता मदन डुकलान ने कहा कि उत्तराखंड की बोलियाँ और नाट्य कला वह अमूल्य धरोहर हैं, जो हमारी सांस्कृतिक परंपराओं और लोकजीवन की सजीव पहचान हैं। वे ग्राफिक एरा डीम्ड यूनिवर्सिटी में आयोजित “उत्तराखंड की बोलियाँ और नाट्य कला” विषयक कार्यशाला को संबोधित कर रहे थे।
कार्यशाला में झलकी उत्तराखंड की लोकसंस्कृति
मदन डुकलान ने छात्रों को उत्तराखंड की प्रमुख बोलियों — गढ़वाली, कुमाऊँनी और जौनसारी — के इतिहास, उत्पत्ति और विकास के बारे में जानकारी दी। उन्होंने उन साहित्यकारों और कलाकारों के योगदान को याद किया, जिन्होंने इन बोलियों को साहित्य और नाट्य कला के माध्यम से नई ऊँचाइयाँ दीं। उन्होंने कहा कि आज की युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति को समझने और संजोने की आवश्यकता है, क्योंकि भाषा और कला हमारी पहचान की जड़ें हैं।
लोकगीतों की गूंज से सराबोर हुआ वातावरण
कार्यशाला की शुरुआत पारंपरिक गीत “दैणा हुइयाँ खोलि का गणेशा हे” से हुई, जिसने उपस्थित सभी लोगों को उत्तराखंड की लोकधुनों के वातावरण में डूबो दिया। इसके बाद बीबीए के छात्र श्रेयांश नवानी, वरदान खंडूरी, विकास जोशी और आदित्य जोशी ने गढ़वाली लोकगीतों की मनमोहक प्रस्तुति दी। लोकप्रिय गीत “बेडू पाको बारा मासा” की धुन पर सभागार तालियों से गूंज उठा।
यह कार्यशाला ग्राफिक एरा डीम्ड यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर रीजनल स्टडीज और मैनेजमेंट विभाग द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित की गई। कार्यक्रम में डॉ. नवनीत रावत (एचओडी, स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट), डॉ. गिरीश लखेड़ा (कोऑर्डिनेटर, सेंटर फॉर रीजनल स्टडीज), अभिनेता एवं प्रोफेसर नवनीत गैरोला, डॉ. अरविंद मोहन, डॉ. रत्नाकर मिश्रा, डॉ. नीरज शर्मा, डॉ. संजय तनेजा, डॉ. पवन कुमार सहित अनेक शिक्षक और छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।
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