आज उत्तराखंड 21 साल का पूरा हो चूका है, परन्तु आज भी उत्तराखंड अपनी अस्स्तित्व की पहचान की लड़ाई लड़ रहा है। जहां एक और उत्तराखंड बनाने की सोच यह थी की पहाड़ी जिलों के निवासियों ने खुद को उत्तर प्रदेश के बड़े राज्य में खोया हुआ महसूस किया है एवं अपने संस्कृति, वेशभूषा, एवं पर्यटन को विकसित नहीं कर पाये। वही दूसरी और छात्रों को उच्च शिक्षा, रोज़गार एवं राज्य की संस्कृति विकसित करना एवं आम जनता तक उसकी पहचान बनाना मुख्य उद्देश्य थे, जो की राज्य के 21 साल के युवा होने तक जस-के-तस है।
जब तक उत्तराखंड के लोग एवं राज्य सरकार ही अपनी सांस्कृतिक विरासत को नहीं अपनायेगे तथा प्रमुखता के साथ नहीं मनाएंगे तब तक कैसे राज्य की बोली, भाषा, संस्कृति एवं राज्य की विराशत को हम राष्ट्रीय एवं अंतरास्ट्रीय पहचान दिला पाएंगे। इसलिए उत्तराखंड के निवासियों एवं राज्य सरकार को राज्य के प्रमुख पर्वे जैसे की इगास, फूलदेही एवं हरेला को राज्य सरकार द्वारा पर्वे घोषित किया जाना चाहिए।
हमें हमारे सीमावर्ती राज्य हिमाचल से भी बहुत कुछ सीखना चाहिए की कैसे राज्य का विकास वहां की पारंपरिक संस्कृति, वेशभूषा, एवं पर्यटन को बेहतर नीतियों के साथ सही दिशा में ले जाया जा सकता है। जहाँ अन्य राज्यों ने अपनी क्षेत्रीय भाषा को विकसित किया है, वही उत्तराखंड आज इसमें बहुत पिछड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। जौनसारी, गढ़वाली, एवं कुमाउनी भाषा को राज्य की संस्कृति को बचाने के लिए विकसित करना बहुत जरुरी है। अन्य बड़े एवं विकसित राज्ये जैसे पंजाब, एवं ओड़िसा जब अपने भाषा के विकास में अहम भूमिका निभा सकते है तो उत्तराखंड जैसा छोटा राज्य क्यों नहीं।
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