नेता बनाम मुर्दा (वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बदलती राजनीति ‌पर एक व्यंग्य)

नेता बनाम मुर्दा (वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बदलती राजनीति ‌पर एक व्यंग्य)

डॉ0 महेशानंद नौड़ियाल, सहायक प्राध्यापक 

आज सुबह घर से बाहर निकला तो देखा कि सामने से नेता जी का जुलूस आ रहा था। एक बहुत बड़े जन सैलाब के बीच सफेद कपड़ों से सजे, फूल मालाओं में लिपटे, लोगों के कंधों में चढ़कर, ढोल-बाजे के साथ नेता जी दूर दिखाई दिए। कुछ लोग फूल बरसा रहे थे तो कुछ दूर से ही हाथ जोड़कर खड़े देख रहे थे।   

शायद चुनाव हो चुका था और अब नेता जी पूरे बहुमत से चुने जा चुके थे इसलिए लोग बड़ी आत्मीयता एवं प्रेम भाव से नेता जी के साथ खड़े थे, लेकिन नेता जी जरा भी हरकत में न थे। बहुत अधिक मतों से जीते थे  शायद इसलिए जीत की खुशी से उनका शरीर ऐंठ गया था इसी कारण लोगों के प्रेम और सम्मान का कोई प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहे थे। नेता जी का जुलूस अभी दूर था इसलिए देखने के लिए मैं भी रुक गया।

जनसैलाब धीरे-धीरे आगे बढ़ता चला आ रहा था तभी कुछ लोगों का एक झुंड नेता जी के साथ में फोटो खिंचवाने की दरख्वास्त लेकर नेता जी के करीबी से दिखने वाले एक शख्स पर गया लेकिन दरख्वास्त नेता जी के पास पहुंचने से पहले ही खारिज कर दी गयी। और आखिर होती भी क्यों नहीं? उन्होंने ही तो उसे वोट और सपोर्ट देकर अपनी मानवीय समानताओं को ताक पर रखा था। अब अगले चुनाव से पहले दोनों में समानता कैसे पाई जा सकती थी।

कुछ और आगे बढ़े तो अन्य एक और व्यक्ति बहुत ज्यादा रोता हुआ बड़ी मुश्किल से नेताजी के पास गया, थोड़ी देर पालकी रोकी गयी, उस व्यक्ति की ओर से एकतरफा संवाद किया गया और फिर उसको रोता छोड़ सब आगे बढ़ने लगे।  शायद नेताजी द्वारा चुनाव से पहले की गयी किसी घोषणा के संबंध में बात रही होगी लेकिन नेता जी को अब कहां कुछ याद रह पाता। अब धीरे-धीरे परिणाम से पूर्व की सारी बातें उनके लिए जीतने के लिए केवल एक रणनीति मात्र थी। नेता जी ठीक उसी तरह विवश थे जिस तरह जीवित अवस्था में किये हुए अपने ही वादों और योजनाओं पर व्यक्ति मरने के उपरांत खुद ही अमल नहीं कर सकता।

अब धीरे-धीरे  जुलूस मेरे नजदीक आ रहा था। लेकिन ये क्या?

बहुत बड़े जन-सैलाब के बीच सफेद कपड़ों में लिपटा, फूल मालाओं से सजा, लोगों के कंधों में चढ़कर आने वाला यह व्यक्ति जिस पर कुछ लोग फूल बरसा रहे थे तो कुछ दूर से ही देखकर हाथ जोडे़ खड़े थे यह तो अब कोई शव यात्रा सी दिखाई देने लगी थी। ओह! शायद इसलिए लोगों के कंधों पर सवार यह व्यक्ति लोगों के प्रेम और सम्मान का कोई प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहा था।

पर यह क्या? अगर यह शव यात्रा है तो इनमें से कुछ लोगों के चेहरों पर इतना उत्साह कैसा? नहीं-नहीं यह निश्चित ही किसी नेता जी के जीत का जुलूस है। पर अगर यह जीत का जुलूस है तो फिर नेता जी लेटे हुए क्यों हैं? यह जरूर कोई शव यात्रा ही है। 

इस तरह तमाम दृश्य और परिस्थितियों में पूरी समानता के कारण मैं अब मुर्दा बनाम नेता के संशय में पड़ चुका था इसलिए जिज्ञासा वश औरों की तरह मैं भी खड़ा हो गया। तभी मेरी नजर मुर्दा बनाम नेता की पालकी पर लगे चार लोगों पर पड़ी इनमें पालकी के आगे की ओर दो युवा लगे हुए थे जो बहुत ही ज्यादा परेशान और शोशित से नजर आ रहे थे | दोनों यद्यपि कमजोर और साधारण थे लेकिन फिर भी बड़ी मेहनत और ईमानदारी से मुर्दा बनाम नेता जी  के भारी-भरकम शरीर को आगे की ओर धकेल रहे थे। इनमें संभवतः एक बेरोजगार तथा दूसरा नौकरीपेशा धारी था पिछले दो पालकी वाहकों की अपेक्षा इनका कद छोटा होने के कारण नेता जी के बोझ का सारा झुकाव इनके ही कन्धों पर था। अब भीड़ कुछ आगे बढ़ी तो पालकी के पिछले हिस्से में मेरी निगाह पड़ी। पालकी के पिछले हिस्से में दोनों कन्धों पर लगे लोग मजबूत  एवं हृष्ट-पुष्ट थे उनमें से एक व्यवसायी  तथा दूसरा  संभवतः ठेकेदार था। ये दोनों भी नेता जी को उठाये हुए थे लेकिन इन दोनों का कद इतना ऊंचा था कि नेता जी का बोझ  इन पर केवल सांकेतिक मात्र था। इस प्रकार बेरोजगार, नौकरीपेशा, व्यावसायी और ठेकेदार चारों वर्ग अपनी-अपनी अपेक्षाओं की आश में जी-जान से मुर्दा बनाम नेता के साथ जुड़े हुए थे, ऐसा करना इनकी जरूरत भी थी और मजबूरी भी।    

वे लोग बड़ी परेशानी में थे इसलिए चलते हुए अक्सर संतुलन बिगड़ जाता और झटका नेता बनाम मुर्दा तक पहुंचता और फिर एक बड़ी जोर की फटकार लगाने की आवाज आती और बेचारे चारों फिर सहम जाते। लेकिन आश्चर्य यह था कि कंधे पर सवार नेता बनाम मुर्दा को अब उन लोगों की परेशानियों से कोई भी लेना देना नहीं था। उसे इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि मेरे को यहां तक पहुंचाने वाले ये लोग किस स्तर तक मुझे ढोने और मेरी अकड़ सहने को मजबूर हैं। उसे कहां अनुमान था कि जो लोग उसके जीवन के उस शून्य संघर्ष काल से लेकर पूर्णता के इस काफिले तक उसके साथ खड़े हैं उनकी उसके प्रति कितनी मजबूत भावनाएँ हैं।  

इस तरह मैंने तमाम दृश्यों और परिस्थितियों को आंकलित कर माजरा समझने का प्रयास किया मगर लोगों की भीड़ के बीच पूरी तरह नाकाम रहा और अब  काफिला मेरे सामने से होता हुआ आगे निकल चुका था लेकिन मैं फिर भी काफी दूर तक उसे उसी जिज्ञासा के भाव से देखता रहा। धीरे-धीरे काफिला मेरी आंखों से ओझल हो चला था, लेकिन नेता बनाम मुर्दा का वह संशय अब भी मेरे मन में जैसा का तैसा बना हुआ था।

अचानक मेरे सामने से एक सज्जन बड़ी तेजी से भागते दिखे तो न चाहते हुए भी मैंने अपनी जिज्ञासा पूछ डाली-

मैंने कहा-    भाई साहब ये भीड़ किस चीज की है?

व्यक्ति कुछ अकड़ में बोला-   अरे! दिखता नहीं? नेता जी का जुलूस जा रहा है।

ओह! फिर नेता जी ऐसे लेटे हुए क्यों हैं? (मैंने चेहरे पर प्रश्न चिन्ह उकेरते हुए कहा ।)

व्यक्ति बोला-  अरे भाई! चुनाव से थके हुए थे इसलिए सो रहे हैं।

ओह! तो नेता जी अब कब तक सोयेंगे ? (बड़े सहज भाव में मैंने पुछा।)

व्यक्ति ताव में आकर बोला- आप लोग कितना सोते हो? दिनभर काम करते हो तो रातभर सोते हो या नहीं?

मैंने सिर हिलाते हुए कहा हां जरूर। तो फिर मंत्री जी जब जीतने के लिए पांच साल तक दिन-रात काम किए हैं तो कम से कम पांच साल तो सोयेंगे ही न!

मैंने फिर सिर हिलाते हुए कहा हां जरूर।

अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा- फिर पांच साल बाद?

व्यक्ति भौंहें चढ़ाते हुए बोला-  पांच साल बाद क्या? फिर जीतने के लिए पांच साल मेहनत।

इतना कहकर वह व्यक्ति दौड़ता हुआ जुलूस के आगे चल दिया।

अब मैं निरुत्तर तो था लेकिन नेता बनाम मुर्दा का वह संशय मेरा समाप्त हो चुका था। दोनों पक्षों में मौजूद इतनी सारी व्यावहारिक और पारिस्थितिक समानताएं एक साथ देखकर मैं द्विविधा में भी था और हैरान भी। और ऐसा होना भी लाजमी था। दोनों के बीच में मौजूद पारिस्थितिक और व्यावहारिक समानताएं जो इतनी अधिक थी। 

और आखिर होती भी क्यों नहीं ? 

क्यों कि दोनों में अंतर ही कितना था। व्यक्ति के अंदर का इंसान मरा तो वह मुर्दा बन गया और इंसानियत मरी तो  नेता। दोनों में यदि कोई अंतर था तो वह ये कि प्रत्येक मुर्दे के अंदर का इंसान मरा हुआ होता है जब कि प्रत्येक नेता के अंदर की इंसानियत मरी हुई नहीं होती।

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